*शापित कर्ण*
यज्ञकुंड की अग्नि सर्वदा
जग में प्रणम्य रही है,
ऊर्जा उसकी दमित हुई न
चिर अदम्य रही है।
नमन हमारा उसको जिसमें
तेज,शौर्य और बल है
विपदा,दुविधा और विषमता का
कहलाता हल है।
जाति,गोत्र,कुल,वंश बता
मानार्जन वीर न करते,
उनके करतब ही स्वमेव
उनका हैं परिचय कहते।
जनक,सूर्य जिसके,माता जिसकी
थी कुन्ती कुमारी,
लहरों में रक्षित थे उसके
प्राण पुनीत अविकारी।
संतान-सुख से वंचित राधा ने
शिशु को ममता का क्षीर दिया
अधीरथ-दुलार ने भारत को
कर्ण सरीखा वीर दिया।
सूतवंश में पला बाल रवि
राधेय नाम को ग्रहण किया,
रही घृणा शोणित में उस हित
जिसने सूरज को ग्रहण दिया।
रणधीर कहाने की इच्छा में,
परशु-शिविर वो जा पहुँचा,
छद्म विप्र बन ज्ञानार्जन में
किंचित कर्ण-हृदय सकुचा।जब-जब अद्भुत शर-संधान से
गुरू को उसने था चकित किया
गुरु ने भी ब्रह्मकुमार समझ,
घट-घट आशीष उडे़ल दिया।
पर सत्य अरुण के जैसा ही
उद्घाटित होकर रहता है,
रह जाती युक्तियाँ धरी-धरी,
झूठा नत मस्तक होता है।
ऐसा ही राधेय के भाग्य घटा,
जिसदिन गुरुतन था शिथिल थका
गुरुमाथ को निज ऊरु पर रखकर,
प्रहरी सा सेवा में रहा डटा।
तभी आ पहुँचा वहाँ कीट क्रूर,
जंघा पर कर्ण के चिपट गया
और क्षत से उसके गर्म-गर्म
लहू फूटकर निकल गया।
पाकर उष्ण अनुभूति रक्त की,
गुरु निद्रा से उठ बैठे,
सहनशीलता देख कर्ण की
सक्रोध प्रश्न कुछ कर बैठे।
सत्यावगत जब हुए ऋषि वे
द्विगुन कुपित हो श्राप दिये,
अस्त्र ब्रह्म के सदुपयोग की
शक्ति कर्ण से छीन लिये
अपमानित,अभिशप्त राधेय की,
व्यथा-कथा निराली है
देह कवच-कुंडल से रक्षित
जन्म भद्दी इक गाली है।
कभी दया के विनिमय तो कभी
गुरू-सेवा उपरान्त मिला
श्राप,श्राप और श्राप ही केवल
निष्ठा का प्रतिसाद मिला।
यौवन का पथ था सहज नहीं
अपमान-शूल से सज्जित था,
शूरों से भरी सभा में उसका
शौर्य सर्वदा लज्जित था ।
किंतु ये शाश्वत सत्य भी है,
परिस्थितियाँ बदलती रहती हैं,
हुआ भाग्य विपर्यय कर्ण का भी
इतिहास की लिपियाँ कहती हैं।
मिला मित्र उसे सुयोधन सा
जिस-स्नेह वो अंग नरेश बना
बदला अपमान का भाग तनिक,
साधारण से सविशेष बना।
हुए देह युगल के प्राण एक
हुआ वीर उभय का लक्ष्य एक,
किन्तु आभारी कर्ण सदा
बंदी ही रखा निज का विवेक।
अब आओ चलें रणभूमि में,
जहाँ थर्मयुद्ध परिचालित है,
हर योद्धा की मृत्यु लगती,
अभिशाप हुई परिभाषित है।
एक-एककर सारे शापों का
परिणाम कर्ण भी भोग चला,
कभी रथ छूटा,कभी शर टूटे फिरर
फिर उचित समय ब्रह्मास्त्र छला
अंततः तोड़कर सकल नियम,
अर्जुन ने चलाया अस्त्र ब्रह्म,
हुआ शौर्य-सूर्य का अस्त तभी
मिल गया ब्रह्म से ब्रह्म।
हे!दान-त्याग के प्रतिमूरत,
हे!निष्ठा के आदर्श कर्ण,
तुम क्रांतिवीर निज क्षमता के,
तुम योग्यता के प्रादर्श कर्ण।
तुमने ही जग को सिखलाया,
अपने जीवन के सार से,
कभी अधर्म की राह नहीं चलना,
हो भले दबे उपकार से।
(दानवीर!महावीर कर्ण के श्री चरणों में क्षमा सहित भावांजलि)🌴🌴 *तारक नाथ चौधुरी*
से.नि.व्याख्याता
चरोदा(दुर्ग)🌴🌴
One of your best poetry
ReplyDeleteEloquent 👏👏
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